पत्नी से पति

मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुसतानी चीजों से नफरत थी ओर उनकी सुन्दरी पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीजों से चिढ़ ! मगर धैर्य ओर विनय भारत की देवियों का आभूषण है गोदावरी दिल पर हजार जब्र करके पति की लायी हुई विदेशी चीजों का व्यवहार करती थी, हालांकि भीतर ही भीतर उसका हदय अपनी परवशता पर रोता था। वह जिस वक्त अपने छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर निगाह दौड़ाती ओर कितनी ही महिलाओं को खद्दर की साड़ियों पहने गर्व से सिर उठाते चलते देख्रती, तो उसके भीतर की वेदना एक ठंडी आह बनकर निकल जाती थी। उसे ऐसा मालूम होता था कि मुझसे ज्यादा बदनसीब औरत संसार में नहीं हैं मै अपने स्वदेश वासिंयों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती? शाम को मिस्टर सेठ के आग्रह करने पर वह कहीं मनोरंजन या सैर के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहने हुए निकलते शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती थी। वह पत्रों मे महिलाओं के जोश- भरे व्याख्यान पढ़ती तो उसकी आंखें जगमगा उठती, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहां बन्धनों मे जकड़ी ह़ई हूं।

होली का दिन था, आठ बजे रात का समय । स्वदेश के नाम पर बिके हुए अनुरागियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रूका ओर उसी चौड़े मैदान में विलायती कपड़ों ही होलियां लगाने की तैयारियां होने ल्रगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह समारोह देखती थी ओर दिल मसोसकर रह जाती थी एक वह है, जो यों खुश-खुश, आजादी के नशे-मतवाले, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक में हूं कि पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रही हूं । इन तीलियों को केसे तोड़ दूं? उसने कमरे मे निगाह दौड़ायी । सभी चीजें विदेशी थीं । स्वेदेशी का एक सूत भी न था यही चीजें वहॉँ जलायी जा रही थी ओर वही चीजें यहॉँ उसके ह्रदय में संचित ग्लानि की भांति सन्दुकों में रखी हुई थीं। उसके जी में एक लहर उठ रही थी कि इन चीजों को उठाकर उसी होली में डाल दे, उसकी सारी ग्लानि और दुर्बलता जलकर भस्म हो जाय। मगर पति को अप्रसन्नता के भय ने उसका हाथ पकड़ लिया । सहसा मि० सेठ के आकर अन्दर कहा- जरा इन सिरफरों को देखों, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, उन्माद और विद्रोह नहीं तो और क्या है। किसी ने सच कहा है, हिदुस्तानियों के न अक्ल आयी है न आयेगी । कोई कल भी तो सीधी नहीं ।

गोदावरी ने कहा – तुम भी हिंदुस्तानी हो।

सेठ ने गर्म होकर कहा- हॉ, लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिन्दुस्तानी कहे या समझे । कम- से–कम मैंने आचार –व्यवहार वेश-भुषा, रीति-नीति, कर्म – वचन में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिन्दुस्तानी होने का कलंक लगाए । पूछिए, जब हमें आठ आने गज में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों मोटा टाट खरीदें । इस विषय में हर एक को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए । न जाने क्यों गवर्नमेंट ने इन दुष्टों को यहां। जमा होने दिया । अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सबों को जहन्नुम रसीद कर देता । तब आटे- दाल का भाव मालूम होता ।
गोदावरी ने अपने शब्द मे तीक्ष्ण तिरस्कार भर के कहा—तुम्हें अपने भइयों का जरा ख्याल नहीं आता ? भारत के सिवा और भी कोई देश है, जिस पर किसी दूसरी जाति के शासन हो? छोटे-छोटे राष्ट्र भी किसी दूसरी जाति के गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते । क्या एक हिन्दुस्तानी के लिए यह लज्जा की बात नहीं है कि वह अपने ही भाइयों के साथ अन्याय करे ?

सेठ ने भोंहैं चढ़ाकर कहा- मैं इन्हे अपना भाई नहीं समझता।
गेदावरी- आखिर तुम्हें सरकार जो वेतन देती है, वह इन्हीं की जेब से तो आता हैं !
सेठ- मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा वेतन किसकी जेब से आता है मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा स्वामी है, न जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है कहते हैं, भारत आध्यात्मिक देश है। क्या अध्यामत्म का यही आशय है कि परमात्मा के विधानों का विरोध किया जाय? जब यह मालूम है कि परमात्मा की इच्छा के विरूद्ध एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, तो यह मुमकिन है कि यह इतना बड़ा देश परामात्मा की मर्जी बगैर अंगरेजों के अधीन हो? क्यों इन दीवानों को इतनी अक्ल नहीं आती कि जब तक परमात्मा की इच्छा न होगी, कोई अंग्ररेजों का बाल भी बॉका न कर सकेगा !
गोदावरी - तो फिर क्यों नोकरी करते हो? परमात्मा की इच्छा होगी, तो आप ही आप भोजन मिल जाएगा बीमार होते हो , तो क्यों दौड़े वैद्य के घर जाते हो? पररमात्मा उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद आप करते है।
सेठ—बेशक करता है; लेकिन अपने घर में आग लगा देना, घर की चीजों को जला देना, ऐसे काम है, जिन्हें परमात्मा कभी पसंद नहीं कर सकता।
गोदावरी –तो यहँ के लोगों का चुपचाप बैठे रहना चाहिए?
सेठ- नहीं, रोना चाहिए । इस तरह रोना चाहिए, जैसे बच्चे माता के दूध के लिए रोते है।

सहसा होली जली, आग की शिखाएं आसमान से बातें करने लगीं, मानों स्वाधनीता की देवी अग्नि- बस्त्र धारण किए हुए आकाश के देवताओं से गले मिलने जा रही हो ।

दीनानाथ ने खिड़की बन्द कर दी, उनके लिए यह दृश्य भी असह्य था।

गोदावरी इस तरह खड़ी रही, जैसे कोई गाय कसाई के खूंटे पर खड़ी हो । उसी वक्त किसी के गाने का आवाज आयी-

‘वतन की देखिए तकदरी कब बदलती हैं’

गोदावरी के विषाद से भरे हुए ह्रदय में एक चोट लगी । उसने खिड़की खोल दी और नीचे की तरफ झॉँका । होली अब भी जल रही थी और एक अंधा लड़का अपनी खँजरी बजाकर गा रहा था-

‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

वह खिड़की के सामने पहुंचा तो गोदावरी पे पुकारा- ओ अन्धे !

खड़ा रहा ।

अन्धा खड़ा हो गया। गोदवारी ने सन्दुक खोला, पर उसेमें उसे एक पैसा मिला । नोट ओर रूपये थे, मगर अन्धे फकीर को नोट या रूपये देने का सवाल ही न था पैसे अगर दो –चार मिल जाते, तो इस वक्त वह जरूर दे देती । पर वहां एक ही पैसा था, वह भी इतना घिसा हुआ कि कहार बाजार से लौटा लाया था । किसी दूकानदार ने न लिया था । अन्धे को वह पैसा देते हुए गोदावरी को शर्म आ रही थी। वह जरा देर तक पैसे को हाथ मे लिए संशय में खड़ी रही । तब अन्धे को बुलाया ओर पैसा दे दिया ।

अन्धे ने कहा—माता जी कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया ।

गोदावरी—दिन भर मॉँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?
अन्धा- क्या करूं माता, कोई खाने को नहीं देता ।
गोदावरी- इस पैसे का चवैना लेकर खा ले ।
अन्धा- खा लूंगा माता जी, भगवान् आपको खुशी रखे । अब यहीं
सोता हूँ।
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2

दूसरे दिन प्रात: काल कॉँग्रेस की तरफ से एक आम जलसा हुआ । मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर बिलायती ब्रुश से दॉँतो पर मला , विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिस्कुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिंगार मुंह में दबाकर घर से निकले, और अपनी मोटर साइकिल पर बैठ फ्लावर शो देखने चले गये ।

गोदावरी को रात भर नींद नहीं आयी थी, दुराशा ओर पराजय की कठिन यन्त्रणा किसी कोड़े की तरह उसे ह्रदय पर पड़ रही थी । ऐसा मालुम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज अटक गयी है। मिस्टर सेठ का अपने प्रभाव मे लाने की उसने वह सब योजनाएँ की, जो एक रमणी कर सकती है; पर उस भले आदमी पर उसके सारे हाव –भाव, मृदु मुस्कान ओर वाणी- विलास को कोई असर न हुआ । खुद तो स्वदेशी वस्त्रों के व्यवहार करने पर क्या राजी होते, गोदावरी के लिए एक खद्दर की साड़ी लाने पर भी सहमत न हुए । यहँ तक कि गोदाबरी ने उनसे कभी कोई चीज मांगने की कसम खा ली ।
क्रोध और ग्लानि ने उसकी सद्भावना को इस तरह विकृत कर दिया जेसे कोई मैली बस्तु निर्मल जल को दूषित कर देती है उसने सोंचा, ‘जब यह मेरी इतनी सी बात नहीं मान सकते; तब फिर मैं क्या इनके इशारों पर चलूं, क्यों इनकी इच्छाओं की लौंडी बनी रहूं? मैंने इनके हाथ कुछ अपनी आत्मा नहीं बेची है। अगर आज ये चोरी या गबन करें , तो क्या में सजा पाऊँगी? उसी सजा ये खुद झेलेगें । उसका अपराध इनके ऊपर होगा। इन्हें अपने कर्म और वचन का अख्तियार हैं मुझे अपने कर्म और वचन का अख्तियार । यह अपनी सरकार की गुलामी करें, अंगरेजों की चौखट पर नाक रगड़ें, मुझे क्या गरज है कि उसमें उनका सहयोग करूँ ! जिसमें आत्माभिमान नहीं, जिसने अपने को स्वार्थ के हाथों बेच दिया, उसके प्रति अगर मेरे मन में भक्ति न हो तो मेरा दोष नहीं। यह नौकर है या गुलाम ? नौकरी और गुलामी में अन्तर है नौकर कुछ नियमों के अधीन अपना निर्दिष्ट काम करता है। वह नियम स्वामी और सेवक दोनों ही पर लागू होते हैं। स्वामी अगर अपमान करे, अपशब्द कहे तो नौकर उसको सहन करने के लिए मजबूर नहीं। गुलाम के लिए कोई शर्त नहीं, उसकी दैहिक गुलामी पीछे होती है, मानसिक गुलामी पहले ही हो जाती हैं। सरकार ने इनसे कब कहा है कि देशी चीजें न खरीदों।’ सरकारी टिकटों तक पर शब्द लिखे होते हैं ‘स्वेदेशी चीजें खरीदो। इससे विदित है कि सरकार देशी चीजें का निषेध नहीं करती। फिर भी यह महाश्य सुर्खरू बनने की फिक्र में सरकार से भी दो अंगुल आगे बढ़ना चाहते है !
मिस्टर सेठ ने कुछ झेंपते हुए कहा—कल न फ्लावर शो देखने चलोगी?

गोदावरी ने विरक्त मन से कहा- नहीं !
‘बहुत अच्छा तमाशा है।’
‘मैं कॉँग्रेस के जलसे में जा रही हूं ।
मिस्टर सेठ के ऊपर यदि छत गिर पड़ी होती या उन्होंने बिजली का तार हाथ से पकड़ लिया होता, तो भी वह इतने बदहवास न होते । आँखें फाड़कर बोले- तुम कॉग्रेस के जलसे में जाओगी ?
‘हां जरूर जांउगी !,
‘ मै नहीं चाहता कि तुम वहँ जाओ।’
‘अगर तुम मेरी परवाह नहीं करते, तो मेरा धर्म नहीं कि तुम्हारी हर एक आज्ञा का पालन करूँ।’

मिस्टर सेठ ने आंखों मे विष भर कर कहा – नतीजा बुरा होगा ।

गोदावरी मानों तलवार के सामने छाती खोल कर बोली- इसकी चिंता नहीं, तुम किसी के ईश्वर नहीं हो।

मिस्टर सेठ सूब गर्म पड़े, धमकियॉ दी; आखिर मुंह फेरकर लेटे रहे। प्रात: काल फ्लावर शो जाते समय भी उन्होंने गोदावरी से कुछ न कहा ।
3

गोदावरी जिस समय कँग्रेस के जलसे में पहुंची, तो कई हजार मर्दो और औरतों का जमाव था । मन्त्री ने चन्दे की अपील की थी और कुछ लोग चन्दा दे रहे थे । गोदावरी उस जगह खड़ी हो गई जहॉँ और स्त्रियॉँ जमा थी ओर देखने लगी कि लोग क्या देते हैं। अधिकाश लोग दो-दो चार-चार आना ही दे रहे थे । वहां ऐसा धनवान था ही कौन? उसने अपनी जेब टटोली, तो एक रूपया निकला । उसने समझा यह काफी है। इसी इन्तजार में थी कि झोली सामने आवे तो उसमें डाल दूँ? सहसा वही अन्धा लड़का, जिसे कि उसने पैसा दिया था, न जाने किधर से आ गया और ज्यों ही चन्दे की झोली उसके सामने पहुँचीं, उसने उसमें कुछ डाल दिया । सबकी आँखें उसकी तरफ उठ गयीं । सबको कुतूहल हो रहा था कि अन्धे ने क्या दिया? कही एक-आध पैसा मिल गया होगा। दिन भर गला फाड़ता है, तब भी तो उस बेचारे को रोटी नहीं मिलती ! अगर यही गाना पिश्वाज और साज के साथ किसी महफिल में होता तो रूपये बरसते; लेकिन सड़क पर गाने वाले अन्धे की कौन परवाह करता है।

झोली में पैसा डालकर अन्धा वहाँ से चल दिया और कुछ दूर जाकर गाने लगा-
‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

सभापति ने कहा – मित्रों, देखिए, यह वह पैसा है,जो एक गरीब उन्धा लड़का इस झोली में डाल गया है। मेरी आंखों में इस एक पैसें की कीमत किसी अमीर के एक हजार रूपये से कम नहीं । शायद यही इस गरीब की सारी बिसात होगी। जब ऐसे गरीबों की सहानुभूति हमारे साथ है, तो मुझे सत्य की विजय में संदेह नहीं मालूम होता । हमारे यहाँ क्यों इतने फकीर दिखायी देती हैं? या तो इसलिए कि समाज में इन्हें कोई काम नहीं मिलता या दरिद्रता से पैदा हुई बीमारियों के कारण यह अब इस योग्य ही नहीं रह गये कि कुछ काम करें। या भिक्षावृति ने इनमें कोई सामर्थ्य ही नहीं छोड़ी । स्वराज्य के सिवा इन गरीबों का अब उद्धार कौन कर सकता है। देखिए, वह गा रहा है।–

‘वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।’

इस पीड़ित ह्रदय में कितना उत्सर्ग ! क्या अब भी कोई संदेह कर सकता है कि हम किसकी आवाज हैं? (पैसा उपर उठा कर) आपमें कौन इस रत्न को खरीद सकता है?

गोदावरी के मन में जिज्ञासा हुई, क्या वह वही तौ पेसा नहीं है, जो रात मैंने उसे दिया था? क्या उसने सचमुच रात को कुछ नहीं खाया?

उसने जाकर समीप से पैसे को देखा, जो मेज पर रखा दिया गया था। उसका ह्रदय धक् से हो गया । यह वही घिसा हुआ पैसा था।

उस अंधे की दशा, उसके त्याग का स्मरण करके गोदावरी अनुरक्त हो उठी । कँपते हुए स्वर में बोली – मुझे आप यह पैसा दे दीजिए, मैं पॉँच रूपये दूंगी ।

सभापति ने कहा – एक बहन इस पैसे के दाम पांच रूपये दे रही है।

दूसरी आवाज आयी –दस रुपये।

तीसरी आवाज आयी- बीस रुपये ।

गोदावरी ने इस अन्तिम व्यक्ति की ओर देखा । उसके मुख पर आत्माभिमान झलक रहा था, मानों कह रहा हो कि यहॉँ कौन है, जो मेरी बराबरी कर सके ! गोदावरी के मन मे स्पर्द्धा का भाव जाग उठा । चाहे कुछ हो जाय, इसके हाथ में यह पैसा न जाय । समझता है, इसने बीस रुपये क्या कह दिये, सारे संसार का मोल ले लिया ।

गोदावरी ने कहा – चालीस रूपये ।

उस पुरूष ने तुरंत कहा—पचास रूपये ।

हजारों आँखें गोदावरी की ओर उठ गयीं मानो कह रही हों, अब की आप ही हमारी लाज रखिए ।

गोदावरी ने उस आदमी की ओर देखकर धमकी से मिले हुए स्वर में कहा – सौ रुपये।

धनी आदमी ने भी तुरंत कहा- एकं सौ बीस रूपये ।

लोगों के चेहरे पर हवाइयँ उड़ने लगीं। समझ गयें, इसी के हाथ विजय रही। निराश आंखों से गोदावरी की ओर ताकने लगे; मगर ज्यों ही गोदावरी के मुँह से निकला डेढ़ सौ, कि चारों तरफ तालियॉ पड़ने लगीं, मानो किसी दंगल के दर्शक अपने पहलवान कीविजय पर मतवाले हो गये हों।

उस आदमी ने फिर कहा – पौने दो सौ।

गोदावरी बोली – दो सौ।

फिर चारों तरफ से तालियँ पड़ी। प्रतिद्वंद्वी ने अब मैदान से हट जाने ही मेंअपनी कुशल समझी ।

गोदावरी विजय के गर्व पर नम्रता का पर्दा डाले हुए खड़ी थी और हजारो शुभ कामनाऍं उस पर फुलों की तरह बरस रही थीं।

4
जब लोगो को मालूम हुआ कि यह देवी मिस्टर सेठ की बीबी है।, तो उन्हें ईर्ष्यामय आनंद के साथ उस पर दया भी आयी ।
मिस्टर सेठ अभी फ्लावर शों मे ही थें कि एक पुलिस के अफसर ने उन्हें यह घातक संवाद सुनाया । मिस्टर सेठ सकते में पड़ गये, मानो सारी देह शुन्य पड़ गयी हो । फिर दानों मुटियँ बांध लीं । दांत पीसे, ओठ चबाये और उसी वक्त घर चले । उनकी मोटर –साईकिल कभी इतनी तेज न चली थी।

घर में कदम रखते ही उन्होंने चिनगारियों –भरी ऑंखों से देखते हुए कहा- क्या तुम मेरे मुंह में कालिख पुतवाना चाहती हो?

गोदावरी ने शांत भाव से कहा-कुछ मुह से भी तो कहो या गालियॉँ ही दिये जाओगे? तुम्हारे मुहँ में कालिख लगेगी, तो क्या मेरे मुहँ में न लगेगी? तुम्हारी जड़ खुदेगी, तो मेरे लिए दूसरा कौन-सा सहारा है।

मिस्टर सेठ—सारे शहर में तूफान मचा हुआ है। तुमने मेरे लिए रुपये दिये क्यों?

गोदावरी ने उसी शांत भाव से कहा—इसलिए कि मैं उसे अपना ही रुपया समझती हूँ।

मिस्टर सेठ दॉँत किटकिटा कर बोले—हरगिज नहीं, तुम्हें मेरा रुपया खर्च करने का कोई हक नहीं है।

गोदावरी-बिलकुल गलत, तुम्हारे खर्च करने का तुम्हें जितना अख्तियार है, उतना ही मुझको भी है। हॉँ, जब तलाक का कानून पास करा लोगे और तलाक दे दोगे, तब न रहेगा।

मिस्टर सेठ ने अपना हैट इतने जोर से मेज पर फेंका कि वह लुढ़कता हुआ जमीन पर गिर पड़ा और बोले—मुझे तुम्हारी अक्ल पर अफसोस आता है। जानती हो तुम्हारी इस उद्दंडता का क्या नतीजा होगा? मुझसे जवाब तलब हो जाएगा। बतलाओ, क्या जवाब दूँगा? जब यह जाहिर है कि कांग्रेस सरकार से दुश्मनी कर रही है तो कांग्रेस की मदद करना सरकार के साथ दुश्मनी करनी है।

‘तुमने तो नहीं की कांग्रेस की मदद!’

‘तुमने तो की!’

इसकी सजा मुझे मिलेगी या तुम्हें? अगर मैं चोरी करूँ, तो क्या तुम जेल जाओगे?’

‘चोरी की बात और है, और यह बात और है।’

‘तो क्या कांग्रेस की मदद करना चोरी या डाके से भी बुरा है?’

‘हॉँ, सरकारी नौकर के लिए चोरी या डाके से भी बुरा है।’

‘मैंने यह नहीं समझा था।’

अगर तुमने यह नहीं समझा था, तो तुम्हारी ही बुद्धि का भ्रम था। रोज अखबारों में देखती हो, फिर भी मुझसे पूछती हो। एक कॉँग्रेस का आदमी प्लेटफार्म पर बोलने खड़ा होता है, तो बीसियों सादे कपड़े वाले पुलिस अफसर उसकी रिपोर्ट लेने बैठते हैं। काँग्रेस के सरगनाओं के पीछे कई-कई मुखबिर लगा दिए जाते हैं, जिनका काम यही है कि उन पर कड़ी निगाह रखें। चोरों के साथ तो इतनी सख्ती कभी नहीं की जाती। इसीलिए हजारों चोरियॉँ और डाके और खून रोज होते रहते हैं, किसी का कुछ पता नहीं चलता, न पुलिस इसकी परवाह करती है। मगर पुलिस को जिस मामले में राजनीति की गंध भी आ जाती है। फिर देखो पुलिस की मुस्तैदी। इन्सपेक्टर जरनल से लेकर कांस्टेबिल तक ऐड़ियों तक का जोर लगाते हैं। सरकार को चोरों से भय नहीं। चोर सरकार पर चोट नहीं करता। कॉँग्रेस सरकार को अख्तियार पर हमला करती है, इसलिए सरकार भी अपनी रक्षा के लिए अपने अख्तियार से काम लेती है। यह तो प्रकृति का नियम है।

मिस्टर सेठ आज दफ्तर चले, तो उनके कदम पीछे रह जाते थे! न जाने आज वहॉँ क्या हाल हो। रोज की तरह दफ्तर में पहुँच कर उन्होंने चपरासियों को डॉंटा नहीं, क्लर्कों पर रोब नहीं जमाया, चुपके से जाकर कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा मालूम होता था, कोई तलवार सिर पर लटक रही है। साहब की मोटर की आवाज सुनते ही उनके प्राण सूख गये। रोज वह अपने कमरे में बैठ रहते थे। जब साहब आकर बैठ जाते थे, तब आध घण्टे के बाद मिसलें लेकर पहुँचते थे। आज वह बरामदे में खड़े थे, साहब उतरे तो झुककर उन्होंने सलाम किया। मगर साहब ने मुँह फेर लिया।

लेकिन वह हिम्मत नहीं हारे, आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया, साहब कमरे में गये, तो सेठ साहब ने पंखा खोल दिया, मगर जान सूखी जाती थी कि देखें, कब सिर पर तलवार गिरती है। साहब ज्यों ही कुर्सी पर बैठे, सेठ ने लपककर, सिगार-केस और दियासिलाई मेज पर रख दी।

एकाएक ऐसा मालूम हुआ, मानो आसमान फट गया हो। साहब गरज रहै थे, तुम दगाबाज आदमी हो!
सेठ ने इस तरफ साहब की तरफ देखा, जैसे उनका मतलब नहीं समझे।
साहब ने फिर गरज कर कहा-तुम दगाबाज आदमी हो।
मिस्टर सेठ का खून गर्म हो उठा, बोले-मेरा तो ख्याल है कि मुझसे बड़ा राजभक्त इस देश में न होगा।
साहब-तुम नमकहारम आदमी है।
मिस्टर सेठ के चेहरे पर सुर्खी आयी-आप व्यर्थ ही अपनी जबान खराब कर रहै हैं।
साहब-तुम शैतान आदमी है।
मिस्टर सेठ की ऑंखों में सुर्खी आयी-आप मेरी बेइज्जती कर रहै हैं। ऐसी बातें सुनने की मुझे आदत नहीं है।
साहब-चुप रहो, यू ब्लडी। तुमको सरकार पॉँच सौ रूपये इसलिए नहीं देता कि तुम अपने वाइफ के हाथ से कॉँग्रेस का चंदा दिलवाये। तुमको इसलिए सरकार रुपया नहीं देता।
मिस्टर सेठ को अपनी सफाई देने का अवसर मिला। बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी वाइफ ने सरासर मेरी मर्जी के खिलाफ रुपये दिये हैं। मैं तो उस वक्त फ्लावर शो देखने गया था, जहॉँ मिस फ्रॉँक का गुलदस्ता पॉँच रुपये में लिया। वहॉँ से लौटा, तो मुझे यह खबर मिली।
साहब-ओ! तुम हमको बेवकूफ बनाता है?

यह बात अग्नि-शिला की भॉँति ज्यों ही साहब के मस्तिष्क में घुसी, उनके मिजाज का पारा उबाल के दर्जे तक पहुँच गया। किसी हिंदुस्तानी की इतनी मजाल कि उन्हें बेवकूफ बनाये! वह जो हिंदुस्तान के बादशाह हैं, जिनके पास बड़े-बड़े तालुकेदार सलाम करने आते हैं, जिनके नौकरों को बड़े-बडे रईस नजराना देते हैं, उन्हीं को कोई बेवकूफ बनाये! उसके लिये वह असह्य था! रूल उठा कर दौड़ा।

लेकिन मिस्टर सेठ भी मजबूत आदमी थे। यों वह हर तरह की खुशामद किया करते थे! लेकिन यह अपमान स्वीकार न कर सके। उन्होंने रूल का तो हाथ पर लिया और एक डग आगे आगे बढ़कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की ऑंखों के सामने अँधेरा छा गया। वह इस मुष्टिप्रहार के लिए तैयार न थे। उन्हें कई बार इसका अनुभव हो चुका था कि नेटिव बहुत शांत, दब्बू और गमखोर होता है। विशेषकर साहबों के सामने तो उनकी जबान तक नहीं खुलती। कुर्सी पर बैठ कर नाक का खून पोंछने लगा। फिर मिस्टर सेठ के उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ीं; मगर दिल में सोच रहा था, इसे कैसे नीचा दिखाऊँ।

मिस्टर सेठ भी अपने कमरे में आ कर इस परिस्थिति पर विचार करने लगे। उन्हें बिलकुल खेद न था; बल्कि वह अपने साहस पर प्रसन्न थे। इसकी बदमाशी तो देखो कि मुझ पर रूल चला दिया! जितना दबता था, उतना ही दबाये जाता था। मेम यारों को लिये घूमा करती है, उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती। मुझसे शेर बन गया। अब दौड़ेगा कमिश्नर के पास। मुझे बरखास्त कराये बगैर न छोड़ेगा। यह सब कुछ गोदावरी के कारण हो रहा है। बेइज्जती तो हो ही गयी अब रोटियों को भी मुहताज होना पड़ा। मुझ से तो कोई पूछेगा भी नहीं, बरखास्तगी का परवाना आ जायेगा। अपील कहॉँ होगी? सेक्रेटरी हैं हिन्दुस्तानी, मगर अँगरेजों से भी ज्यादा अँगरेज। होम मेम्बर भी हिन्दुस्तानी हैं, मगर अँगरेजों के गुलाम। गोदावरी के चंदे का हाल सुनते ही उन्हें जूड़ी चढ़आयेगी। न्याय कीकिसी से आशा नहीं, अब यहॉँ से निकल जाने में ही कुशल है।

उन्होंने तुंरत एक इस्तीफा लिखा और साहब के पास भेज दिया। साहब ने उस पर लिख दिया, ‘बरखास्त’।

5
दोपहर को जब मिस्टर सेठ मुहँ लटकाये हुए घर पहूँचे तो गोदावरी ने पूछा-आज जल्दी कैसे आ गये?
मिस्टर सेठ दहकती हुई ऑखों से देख कर बोले-जिस बात पर लगी थीं, वह हो गयी। अब रोओ, सिर पर हाथ रखके!
गोदावरी-बात क्या हुई, कुछ कहो भी तो?
सेठ-बात क्या हुई, उसने ऑंखें दिखायीं, मैंने चाँटा जमाया और इस्तीफा दे कर चला आया।
गोदावरी-इस्तीफा देने की क्या जल्दी थी?
सेठ-और क्या सिर के बाल नुचवाता? तुम्हारा यही हाल है, तो आज नहीं, कल अलग होना ही पड़ता।
गोदावरी-खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। आज से तुम भी कॉँग्रेस में शरीक हो जाओ।
सेठ ने ओठ चबा कर कहा-लजाओगी तो नहीं, ऊपर से घाव पर नमक छिड़कती हो।
गोदावरी-लजाऊँ क्यों, मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारी बेड़ियॉँ कट गयीं।
सेठ-आखिर कुछ सोचा है, काम कैसे चलेगा?
गोदावरी-सब सोच लिया है। मैं चल कर दिखा दूँगी। हॉँ, मैं जो कुछ कहूँ, वह तुम किये जाना। अब तक मैं तुम्हारे इशारे पर चलती थी, अब से तुम मेरे इशारे पर चलना। मैं तुमसे किसी बात की शिकायत न करती थी; तुम जो कुछ खिलाते थे खाती थी, जो कुछ पहनाते थे पहनती थी। महल में रखते, महल में रहती। झोपड़ी मे रखते, झोपड़ी में रहती। उसी तरह तुम भी रहना। जो काम करने को कहूँ वह करना। फिर देखूँ कैसे काम नहीं चलता। बड़प्पन सूट-बूट और ठाठ-बाट में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊँचा है। आज तक तुम मेरे पति थे आज से मैं तुम्हारा पति हूँ।

सेठ जी उसकी और स्नेह की ऑंखों से देख कर हँस पड़े।

4 comments:

  1. thanks a lot, i got all things about Preamchand at one place. its a place of feeling

    Rajat Sharma

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  2. Thanks a lot for sharing Premchand ji's stories here... :)

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  3. I heartily appreciate this story

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  4. I heartily appreciate this story.

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