खैर, तीन-चार दिन के बाद एक दिन मैं सुबह के वक्त तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने मेरी फरमाइश पूरी करने में ज्यादा मुस्तैदी न दिखलायी। एक मिनट तक तो पान फेरती रही, फिर अन्दर चली गयी और कोई मसाला लिये हुए निकली। मैं दिल में खुश हुआ कि आज बड़े विधिपूर्वक गिलौरियां बना रही है। मगर अब भी वह सड़क की ओर प्रतीक्षा की आंखों से ताक रही थी कि जैसे दुकान के सामने कोई ग्राहक ही नहीं और ग्राहक भी कैसा, जो उसका पड़ोसी है और दिन में बीसियों ही बार आता है! तब तो मैंने जरा झुंझलाकर कहा—मैं कितनी देर से खड़ा हूं, कुछ इसकी भी खबर है?
तम्बोलिन ने क्षमा-याचना के स्वर में कहा—हां बाबू जी, आपको देर तो बहुत हुई लेकिन एक मिनट और ठहर जाइए। बुरा न मानिएगा बाबू जी, आपके हाथकी बोहनी अच्छी नहीं है। कल आपकी बोहनी हुई थी, दिन में कुल छ: आने की बिक्री हुई। परसो भी आप ही की बोहनी थी, आठ आने के पैसे दुकान में आये थे। इसके पहले दो दिन पंडित जी की बोहनी हुई थी, दोपहर तक ढाई रूपये आ गये थे। कभी किसी का हाथ अच्छा नहीं होता बाबू जी!
मुझे गोली-सी लगी। मुझे अपने भाग्यशाली होने का कोई दवा नहीं है, मुझसे ज्यादा अभागे दुनिया में नहीं होंगे। इस साम्राज्य का अगर में बादशाह नहीं, तो कोई ऊंचा मंसबदार जरूर हूं। लेकिन यह मैं कभी गवारा नहीं कर सकता कि नहूसत का दाग बर्दाश्त कर लूं। कोई मुझसे बोहनी न कराये, लोग सुबह को मेरा मुंह देखना अपशकुन समझे, यह तो घोर कलंक की बात है।
मैंने पान तो ले लिया लेकिन दिल में पक्का इरादा कर लिया कि इस नहूसत के दाग को मिटाकर ही छोडूंगा। अभी अपने कमरे में आकर बैठा ही था कि मेरे एक दोस्त आ गये। बाजार साग-भाजी जेने जा रहे थे। मैंने उनसे अपनी तम्बोलिन की खूब तारीफ की। वह महाशय जरा सैंदर्य-प्रेमी थे और मजाकिया भी। मेरी ओर शरारत-भरी नजरों से देखकर बोलग—इस वक्त तो भाई, मेरे पास पैसे नहीं हैं और न अभी पानों की जरूरत ही है। मैंने कहा—पैसे मुझसे ले लो।
‘हां, यह मंजूर है, मगर कभी तकाजा मत करना।‘
‘यह तो टेढ़ी खीर है।‘
‘तो क्या मुफ्त में किसी की आंख में चढ़ना चाहते हो?’
मजबूर होकर उन हजरत को एक ढोली पान के दाम दिये। इसी तरह जो मुझसे मिलने आया, उससे मैंने तम्बोलिन का बखान किया। दोस्तों ने मेरी खूब हंसी उड़ायी, मुझ पर खूब फबतियां कसीं, मुझे ‘छिपे रुस्तम’, ‘भगतजी’ और न जाने क्या-क्या नाम दिये गये लेकिन मैंने सारी आफतें हंसकर टालीं। यह दाग मिटाने की मुझे धुन सवार हो गयी।
दूसरे दिन जब मैं तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने फौरन पान बनाये और मुझे देती हुई बोली—बाबू जी, कल तो आपकी बोहनी बहुत अच्छी हुई, कोई साढे तीन रुपये आये। अब रोज बोहनी करा दिया करो।
2
ती
न-चार दिन लगातार मैंने दोस्तों से सिफारिशें कीं, तम्बोलिन की स्तुति गायी और अपनी गिरह से पैसे खर्च करके सुर्खरुई हासिल की। लेकिन इतने ही दिनों में मेरे खजाने में इतनी कमी हो गयी कि खटकने लगी। यह स्वांग अब ज्यादा दिनों तक न चल सकता था, इसलिए मैंने इरादा किया कि कुद दिनों उसकी दुकान से पान लेना छोड़ दूं। जब मेरी बोहनी ही न होगी, तो मुझे उसकी बिक्री की क्या फिक्र होगी। दूसरे दिन हाथ-मुंह धोकर मैंने एक इलायची खा ली और अपने काम पर लग गया। लेकिन मुश्किल से आधा घण्टा बीता हो, कि किसी की आहट मिली। आंख ऊपर को उठाता हूं तो तम्बोलिन गिलौरियां लिये सामने खड़ी मुस्करा रही है। मुझे इस वक्त उसका आना जी पर बहुत भारी गुजरा लेकिन इतनी बेमुरौवती भी तो न हो सकती थी कि दुत्कार दूं। बोला—तुमने नाहक तकलीफ की, मैं तो आ ही रहा था।
तम्बोलिन ने मेरे हाथ में गिलौरियां रखकर कहा—आपको देर हुई तो मैंने कहा मैं ही चलकर बोहनी कर आऊं। दुकान पर ग्राहक खड़े हैं, मगर किसी की बोहनी नहीं की।
क्या करता, गिलौरिया खायीं और बोहनी करायी। जिस चिनता से मुक्ति पाना चाहता था, वह फर फन्दे की तरह गर्दन पर चिपटी हुई थी। मैंने सोचा था, मेरे दोस्त दो-चार दिन तक उसके यहां पान खायेंगे तो आपही उससे हिल जायेंगे और मेरी सिफारिश की जरूरत न रहेगी। मगर तम्बोलिन शायद पान के साथ अपने रूप का भी कुछ मोल करती थी इसलिए एक बार जो उसकी दुकान पर गया, दुबारा न गया। एक-दो रसिक नौजवान अभी तक आते थे, वह लोग एक ही हंसी में पान और रूप-दर्शन दोनों का आनन्द उठाकर चलते बने थे। आज मुझे अपनी साख बनाये रखने के लिए फिर पूरे डेढ़ रुपये खर्च करने पड़े, बधिया बैठ गयी।
दूसरे दिन मैंने दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया, मगर जब तम्बोलिन ने नीचे से चीखना, चिल्लाना और खटखटाना शूरू किया तो मजबूरन दरवाजा खोलना पड़ा। आंखें मलता हुआ नीचे गया, जिससे मालूम हो कि आज नींद आ गयी थी। फिर बोहनी करानी पड़ी। और फिर वही बला सर पर सवार हुई। शाम तक दो रुपये का सफाया हो गया। आखिर इस विपत्ति से छुटकारा पाने का यही एक उपाय रह गया कि वह घर छोड़ दूं।
3
मैं
ने वहां से दो मील पर एक अनजान मुहल्ले में एक मकान ठीक किया और रातो-रात असबाब उठवाकर वहां जा पहुंचा। वह घर छोड़कर मैं जितना खुश हुआ शायद कैदी जेलखाने से भी निकलकर उतना खुश न होता होगा। रात को खूब गहरी नींद सोया, सबेरा हुआ तो मुझे उस पंछी की आजादी का अनुभव हो रहा था जिसके पर खुल गये हैं। बड़े इत्मीनान से सिगरेट पिया, मुंह-हाथ धोया, फिर अपना सामान ढंग से रखने लगा। खाने के लिए किसी होटल की भी फिक्र थी, मगर उस हिम्मत तोड़नेवाली बला से फतेह पाकह मुझे जो खुशी हो रही थी, उसके मुकाबले में इन चिन्ताओं की कोई गिनती न थी। मुंह-हाथ धोकर नीचे उतरा। आज की हवा में भी आजादी का नशा थां हर एक चीज मुस्कराती हुई मालूम होती थी। खुश-खुश एक दुकान पर जाकर पान खाये और जीने पर चढ़ ही रहा था कि देखा वह तम्बोलिन लपकी जा रही है। कुछ न पूछो, उस वक्त दिल पर क्या गुजरी। बस, यही जी चाहता था कि अपना और उसका दोनों का सिर फोड़ लूं। मुझे देखकर वह ऐसी खुश हुई जैसे कोई धोबी अपना खोया हुआ गधा पा गया हो। और मेरी घबराहट का अन्दाजा बस उस गधे की दिमागी हालत से कर लो! उसने दूर ही से कहा—वाह बाबू जी, वाह, आप ऐसा भागे कि किसी को पता भी न लगा। उसी मुहल्ले में एक से एक अच्छे घर खाली हैं। मुझे क्या मालूम था कि आपको उस घर में तकलीफ थी। नहीं तो मेरे पिछवाड़े ही एक बड़े आराम का मकान था। अब मैं आपको यहां न रहने दूंगी। जिस तरह हो सकेगा, आपको उठा ले जाऊंगी। आप इस घर का क्या किराया देते हैं?
मैंने रोनी सूरत बना कर कहा—दस रुपये।
मैंने सोचा था कि किराया इतना कम बताऊं जिसमें यह दलील उसके हाथ से निकल जाय। इस घर का किराया बीस रुपये हैं, दस रुपये में तो शायद मरने को भी जगह न मिलेगी। मगर तम्बोलिन पर इस चकमे का कोई असर न हुआ। बोली—इस जरा-से घर के दस रुपये! आप आठा ही दीजियेगा और घर इससे अच्छा न हो तो जब भी जी चाहे छोड़ दीजिएगा। चलिए, मैं उस घर की कुंजी लेती आई हूं। इसी वक्त आपको दिखा दूं।
मैंने त्योरी चढ़ाते हुए कहा—आज ही तो इस घर में आया हूं, आज ही छोड़ कैसे सकता हूं। पेशगी किराया दे चुका हूं।
तम्बोलिन ने बड़ी लुभावनी मुस्कराहट के साथ कहा—दस ही रुपये तो दिये हैं, आपके लिए दस रुपये कौन बड़ी बात हैं यही समझ लीजिए कि आप न चले तो मैं उजड़ जाऊंगी। ऐसी अच्छी बोहनी वहां और किसी की नहीं है। आप नहीं चलेंगे तो मैं ही अपनी दुकान यहां उठा लाऊंगी।
मेरा दिल बैठ गया। यह अच्छी मुसीबत गले पड़ी। कहीं सचमुच चुड़ैल अपनी दुकान न उठा लाये। मेरे जी में तो आया कि एक फटकार बताऊं पर जबान इतनी बेमुरौवत न हो सकी। बोला—मेरा कुछ ठीक नहीं है, कब तक रहूं, कब तक न रहूं। आज ही तबादला हो जाय तो भागना पड़े। तुम न इधर की रहो, न उधर की।
उसने हसरत-भरे लहजे में कहा—आप चले जायेंगे तो मैं भी चली जाऊंगी। अभी आज तो आप जाते नहीं।
‘मेरा कुछ ठीक नहीं है।’
‘तो मैं रोज यहां आकर बोहनी करा लिया करुंगी।’
‘इतनी दूर रोज आओगी?’
‘हां चली आऊंगी। दो मीन ही तो है। आपके हाथ की बोहनी हो जायेगी। यह लीजिए गिलौरियां लाई हूं। बोहनी तो करा दीजिए।’
मैंने गिलौरियां लीं, पैसे दिये और कुछ गश की-सी हालत में ऊपर जाकर चारपाई पर लेट गया।
अब मेरी अक्ल कुछ काम नहीं करती कि इन मुसीबतों से क्यों कर गला छुड़ाऊं। तब से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूं। कोई भागने की राह नजर नहीं आती। सुर्खरू भी रहना चाहता हूं, बेमुरौवती भी नहीं करना चाहता और इस मुसीबत से छुटकारा भी पाना चाहता हूं। अगर कोई साहब मेरी इस करुण स्थिति पर मुझे ऐसा कोई उपाय बतला दें तो जीवन-भर उसका कृतज्ञ रहूंगा।
—‘प्रेमचालीसा’ से
wah wah kaya bat hai.
ReplyDelete"Munshi Premchand" - Naam hi kafi hai
ReplyDeletebharatiya sahiya ki pahchan
ReplyDeletebahut badiya.......
ReplyDeletebut badiya...
ReplyDeleteMunshi ji was a great writer.
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